मैं जो भी उत्तर दे रहा - TopicsExpress



          

मैं जो भी उत्तर दे रहा हूं, उस को ध्यान पूर्वक पढ़ने के स्थान पर मोहित जी वही घिसे पिटे प्रश्न फिर दोहरा देते हैं। मैं जो प्रश्न पूछता हूं उसमें से एक का भी उत्तर देने की कोशिश नहीं करते। चलिए आज कुछ और प्रश्न पूछते हैं और आप के द्वारा पूछे गए प्रश्नों के उत्तर देते हैं। यह सही है कि जब आत्मा मोक्ष के चरम बिन्दू पर पहुंचती है तो उस स्टेज को ब्रहमनिवार्ण कहते हैं जिसको बुद्ध ने भी निर्वाण ही क्हा। इस स्टेज तक पहुंचने के लिए जो विद्या चाहिए उसे ब्रहमविद्या कहते हैं। मैं आप से प्रश्न करता हूं मोहित जी कि ऋषि दयानंद सरस्वती वेदों में साईंस की नई नई खोजें दिखाने पर जो तुले हैं उससे क्या आप ब्रहमविद्या प्राप्त कर सकते हैं। कितने मजे की बात है कि ऋषि दयानंद सरस्वती ने वेदों में भाप इंजन तो ढूंढ निकाल पर वह उसमें डीजल इंजन नहीं ढूंढ पाए। उन्होंने वेदों में मैडम क्यूरी का रेडियम अविष्कार भी ढूंढ लिया परन्तु इंटरनेट और मोबाईल का अविष्कार नहीं ढूंढ पाए। आप कहते हैं कि वेद ‘‘पूर्ण ज्ञान है।’’ ’’गणित, अयुर्वेद, चिकित्सा, भुगोल, प्लैनेट, दुनिया कैसे बनी, सूर्य, सूरज से दुनिया की दूरी, चंद्रमा कितने हैं, चंद्रमा की इस दुनिया से कितनी दूरी है, पहले आग था या पानी, वेदों में हर जवाब है, भविष्य कुंडली, योगा, आसन, परमात्मा प्राप्ति, शांति, संस्कार, दूसरों को दंडित करना, कर्म प्रहार, यह सब बातें हमें कोई इंसान तो क्या देवता भी नहीं दे सकते, इतनी जानकारी बस वो परमात्मा ही दे सकते हैं, और कोई नहीं, हम यह कैसे मान लें कि यह ज्ञान अधूरा है, जैसे, चलने से पहले जमीन, प्यास से पहले पानी, भूख से पहले भोजन, और आकाश पाताल, परमात्मा और आत्मा को जानने से पहले ज्ञान दिया है परमात्मा ने, जैसे कि एक बच्चा के गर्भ से बाहर आने से पहले मां की छाती में दूध का प्रबंध परमात्मा ने पहले से किया है। इसी प्रकार ज्ञान को पूर्ण करके पहले से भेजा जा चुका है, और जो ज्ञान हमें करोड़ों साल पहले बता दिया वह आज की साईंस ने आज पता लगा रखा है, तो हम कैसे मान लें कि उसे फिर ज्ञान भेजने की जरूरत है।’’ मैं भी मानता हूं कि वेद पूर्ण ज्ञान है। परन्तु क्या आप समझते हैं कि परमात्मा आसमान से किताबें भेजेगा कि हमें यह समझाए कि जमीन से चंद्रमा कितनी दूरी पर है, या भाप का इंजन बनेगा या मैडम क्यूरी रेडियम का अविष्कार करेंगीं। चलिए मान लें कि वेदों में यह सब ज्ञान है। तो फिर आज तक कोई भी वेदों से पढ़कर रेडियम का अविश्कार क्यों नहीं कर पाया, वेदों को पढ़कर भाप का इंजन क्यों नहीं बना पाया। क्या साईंस की दुनिया के अविष्कार वेदों के ज्ञान के कारण हुए हैं? फिर क्या वेद फेल हो गए? मैं ऐसा इसलिए पूछ रहा हूं कि आप भी ऐसे ही बेतुके प्रश्न पूछते हैं कि अगर मुसलमानों ने इस्लाम की शिक्षा को छोड़ दिया तो क्या मौहम्मद फेल हो गए? आप आज तक इस्लाम और मुसलमान का अंतर ही नहीं समझे हैं तो कुरान की शिक्षा को क्या समझेंगे? जो व्यक्ति रूहानियत से कोसों दूर है उसे वेदों में सूर्य और चंद्रमा आदि के अतिरिक्त कुछ नहीं दिखाई देगा। गीता ने क्हा कि सब से बड़ी विद्या आत्मा की विद्या है। जान लीजिए कि वेदों में वह सब कुछ नहीं है जो आप या आप के गुरू ऋषि दयानंद सरस्वती साबित करने की कोशिश करते हैं। वेदों में ब्रहमविद्या सिखाई गई है और परमात्मा की ओर से नामित गुरूओं को पहचनवाया गया है जिन को पहचान कर आप ईश्वर के मार्ग पर पहुंच सकते हैं। जिनके मार्ग पर चलकर ही आत्मा परमात्मा के समीप पहुंचती है। आप तो अभी परमात्मा और ईश्वर में भी अंतर नहीं जानते जब्कि परमात्मा अलग है ईश्वर अलग। जब आप जानते ही नहीं कि परमात्मा और ईश्वर में क्या अंतर है, परमात्मा का हमारी आत्मा से क्या रिश्ता है और कौन परमात्मा की ओर से नामित गुरू हैं जिनके मार्ग पर चलकर ब्रहमनिवार्ण प्राप्ति हो सकती है तो फिर आप कैसे उस मार्ग पर आगे बढ़ेंगे। आपके पंडित महेंद्र पाल आर्य तो इस दुनिया के मोह में इतने ग्रस्त हैं कि उनको पथभ्रष्ट मुसलमानों को जो अपने धर्म को ठीक से समझते भी नहीं हैं परास्त करने की चिंता सताए रहती है, वह क्या मोक्ष का मार्ग दिखाएंगे? ऐसे ही पाखंडी गुरूओं से समाज भरा पड़ा है। यही कारण है कि आवश्यक था कि परमात्मा ऐसे गुरूओं को हमारे सम्मुख धरती पर पेश करे जो ईश्वरीय ज्ञान रखते हों और जिन में तमसिक या रजसिक सोच तक भी न पाई जाए। जो दुनिया में ग्रस्त दिमाग हैं, वह सात्विक दृष्टि नहीं रख सकते। ऐसे दिमागों में ही पंडित महेंद्र पाल आर्य जी का ज्ञान घर कर सकता है। जो सात्विक दृष्टि रखता है, वह इस से आगे बढ़ कर आत्मा के उत्थान की चिंता करता है न कि पथभ्रष्ट मुसलमानों से प्रश्न करके उन्हें परास्त करने पर प्रसन्न होता है। वेदों में साईंस या मैथ्स न ढूंढिए वर्ना भटकते ही रहेंगे। वेदों में ढूंढना है तो उन पथपर्दशकों को ढूंढिए जो सही राह दिखाने के लिए अवतरित हुए। 800 ईस्वी से 1800 ईस्वी तक वेदों की जो भी कमेंटरी मिलती हैं वह इन्हीं पथपर्दशकों की ओर इशारा करती दिखाई देती हैं। परन्तु वह कमेंटेटर भी सही से नहीं पहचान पाए थे कि वेदों में वर्णित देवता कौन हैं। जब ईसाई कमेंटेटरों ने हिन्दुओं पर यह कह कर हमले प्रारंभ किए कि इनकी पुस्तकों पुराने जमाने में हुई देवताओं और असुरों की लड़ाई के वर्णन से अधिक कुछ नहीं बतातीं तो बेचारे ऋषि दयानंद सरस्वती से जो बन पड़ा उन्होंने किया। उन्होंने वेदों में भाप का इंजन ढूंढ निकाला, मैडम क्यूरी की खोज ढूंढ निकाली और जहां जहां इंद्र, अग्नि, देवी आदि का वर्णन था वहां कई कई मायनी पहनाने की कोशिश की परन्तु देवताओं को वेदों से खारिज कर दिया। पर वह भी क्या कर सकते थे कि गीता कह रही है कि जो अपना खाना इन देवताओं को अर्पित किए बिना खाए वह चोर है। क्या भाप के इंजन को खाना अर्पित करेंगे? मेरे साथ वेदों और कुरान को नहीं समझेंगे तो अंधेरे में ही भटकते रहेंगे। वेद पूर्ण ज्ञान है परन्तु वह ज्ञान है जो ईश्वर हमें देना चाहता है। उस ज्ञान को समझने के लिए अकल लगाईए, न कि बाप दादा ने जिस प्रकार उसे समझा है वैसे ही आगे बढ़ते रहिए। द्रोणाचार्य और भीष्म पितामह भी वेदों को अपनी समझ से खूब समझते थे। परन्तु गीता ने क्हा कि वह अंधे हैं, अंधकार में हैं और उन्हें मार डालना उचित है। अंधे न रहिए, अकल के प्रयोग के बिना ज्ञान की रौशनी नहीं मिलेगी। गीता बार बार बता रही है कि इन देवताओं का महत्व क्या है परन्तु अपनी कमअकली के कारण कमेंटेटर समझ न सके। गीता का चैथा चैप्टर - जनन योग - कहता हैः Learn this by prostration, by searching questioning and by service; they will instruct you (duly) in wisdom, those wise men that can see the basic principles. यह आम गुरूओं की बात नहीं हो रही जिन के बारे में आप को पता ही नहीं कि उनकी स्वयं की आत्मा उन्नति या दुगर्ति के किस स्थल पर है। स्वयं अपने को गीता में बताया जा रहा गुरू साबित करने की चाह में बहुत से कमेंटेटरों ने इससे अपने जैसे गुरू से सीख लेने की बात की है। परन्तु यदि आप गीता को परमात्मा का कथन मानते हैं तो क्या परमात्मा आम गुरूओं की बात करेगा जो पथभ्रष्ट भी कर सकता है। यह उनकी बात हो रही है जो परमात्मा की ओर से आने वाले गुरू हैं। जिनके बारे में कुरान ने क्हा कि वह हर बुराई से पाक हैं, वह दुनिया की हर सूखी और तर वस्तु का ज्ञान रखते हैं, यह वह अकलमंद लोग हैं जो basic principles का ज्ञान रखते हैं। इसलिए क्योंकि उनके नूर की खिलकत तमाम चीजों के बनाए जाने से पहले हुई। मौहम्मद ने क्हा कि मैं उस समय भी नबी था जब आदम खुश्क-ओ-तर के दरमियान थे। और जब तुमने इनके मार्ग को अपना लिया तो गीता कहती है कि तुम जरा भी भटकाव में नहीं रहोगे। तमाम पथप्रदर्शकों के नूर को पहचान कर ही परमात्मा तक पहुंच सकते होः Having known this, O Pandava (Arjuna), you will not give way to delusion thus any more; by this all beings without exception will be seen by you in the Self and thus in Me. साफ बताया जा रहा है कि देवता ब्रहमज्ञान तक पहुंचने की कड़ी हैं। साहनी भारती ने गीता की कमेंटरी में लिखा हैः ‘The phrase bhutany aseshena (all beings without any remainder) covers anything and everything in the cosmos subject to the process of becoming, bhutani being derived from the root bhu (to become). That flux which comprises the whole of existence is here first equated with the Self, in order to explain the word ‘they’ used in the previous verse for the devatas who together comprise the Self and then with the Absolute God.’ कृपा करके आप भी और आपके पंडित महेंद्र पाल आर्य जी भी मुसलमानों को उनके धर्म की बुराईयां न समझाएं। पहले वेदों को समझें। कोशिश करें कि जान पाएं कि उसमें क्या लिखा है। और उस मार्ग पर चलने की कोशिश करें। आपको यदि मोक्ष मिलना है तो अपनी आत्मा के उत्थान की कोशिश करके मिलना है। वर्ना कौन जाने कल आपका जन्म किसी मुसलमान के घर में हो जाए। मूर्खता की बातें न करें जैसे पंडित महेंद्र पाल आर्य करते हैं। जैसे कान में अजान देने से या सुन्नत कराने से कोई मुसलमान बनता है। आप ने ईश्वर को दिल से रब माना हो तब तो जानें कि उसके हुक्म पर पाबंदी कैसे होती है? जब मुसलमान ईश्वर को अपना हाकिम, इस सृिष्ट का रचयिता और अपने जीवन और परिवार से बड़ा मानता है तब उसके हुक्म के आगे आंख बंद कर लेता है। जैसे अर्जुन मौत के मुंह में भी जाने को तैयार हो गए थे परमात्मा के अवतार के हुक्म के आगे। कितनों ने नहीं माना और कृष्ण से लड़ने को आ गए। आप भी मुसलमानों की इस प्रथा का मजाक उड़ाते हैं तो क्या नया करते हैं? मोहित जी आप कह रहे हैं कि यह तो माना जा सकता है कि ‘‘1400 साल बाद आज के मुसलमान इस्लाम से हट गए हैं परन्तु जब वे भारत पर हमला करते आए थे तब तो 300-400 वर्ष ही हुए थे। क्या इतनी जल्दी कुरान का असर खत्म होने लगा था।’’ यह सही है। मुसलमान दुनिया भर में जलील इस लिए हो रहे हैं कि उन्होंने इस्लाम की शिक्षा को छोड़ दिया है। पर पैगम्बर मौहम्मद के 300-400 साल बाद ऐसा नहीं हुआ। पैगम्बर मौहम्मद की आंख बंद होते ही मुसलमानों ने कुरान और पैगम्बर मौहम्मद की शिक्षा को छोड़ दिया। आप कहेंगे ऐसा कैसे हो गया। मैं आप को बताता हूं कि ऐसा कैसे हुआ। बुद्ध सारी उम्र संगीत और नृत्य को अच्छी नजर से नहीं देखते थे। बुद्ध का देहांत हुआ तो 14 दिन तक संज्ञीत और नृत्य होता रहा। बृद्ध की अंत्येष्टि हुई तो उनके चाहने वाले उनके कपड़ों का एक एक टुकड़ा फाड़ कर ले गए जब्कि बुद्ध इन वस्तुओं को कोई अहमियत देने की जगह आत्मा के उत्थान की बात करते थे। बुद्ध के प्रिय आनंद थे परन्तु आनंद के स्थान पर जिनकी गोद में सिर रखकर बुद्ध का देहांत हुआ था उनके अनुयायियों ने कश्यप को उत्तराधिकारी बना दिया। आईए देखें कश्यप के विष्य में साहनी भारती ने क्या लिखा हैः B.R. Ambedkar says that twice Buddha was requested by his followers to appoint a successor but every time Buddha refused. Why? Several reasons come to our mind. Firstly, he knew that his was a divinely appointed designation and it was not up to him to appoint a successor. One who appointed him would himself appoint someone else at a suitable time and place. Or is it that Buddha knew that his disciples were not that worthy? Or can there be a possibility that unworthy but shrewd disciples had won over the hearts of the rest of the disciples. This is merely a hypothesis but there are certain indicators that made us frame this hypothesis. B.R. Ambedkar says that Buddha carved for himself no place in his religion by laying down any conditions. This is the reason, as per him, that not much is known of the incidents of his life. But if that was so, Buddha also did not stop his followers from doing so. Why is it that his followers didn’t try to write the incidents of his life, after Buddha had passed away from amidst them? More importantly, when the first Buddhist congregation was held soon after the death of Buddha at Rajagraha, it is explicitly written that Kasyapa presided over the congregation. Who made him the President? B.R. Ambedkar says that Buddha had clearly rejected any question of a successor. Even if a President was to be appointed, why not one from the five Parivrajakas, who were one of the first converts. Also, why not Ananda, who had the distinction of being Buddha’s personal attendant and was also alongside him when Buddha died? What we find, on the other hand, is Kasyapa presiding over the congregation, that too in a manner that it appears that he wanted to control what was to be discussed and what not to be discussed. Kasyapa raised only two questions during the congregation, one regarding the Dhamma and the other regarding the Vinaya. B.R. Ambedkar writes that he (Kasyapa) closed the questions after Dhamma and Vinaya were told. What was the reason for closing the questions? Why were others not given a chance to speak? See what B.R. Ambedkar has written: “Kasyapa then should have put the third question to someone present in the congregation to record some important incidents in the life of the Buddha. But Kasyapa did not. These were the only two questions with which he thought the Sangh was concerned. If Kasyapa had collected the record of the Buddha’s life we would have had today a full-fledged biography of the Buddha. Why did it not strike Kasyapa to collect the record about the Buddha’s life? It could not be indifference. The only answer one can give is that the Buddha had carved no niche for himself in his religion.” This statement of B.R. Ambedkar proves that the Buddha’s not carving any niche for himself in his religion were not the words of Buddha himself but conclusions drawn by B.R. Ambedkar due to his inability to cast an opinion on Kasyapa’s integrity. There are several instances where what Buddha did in private is known to us. Had there been a second person alongside Buddha, we could have thought that the other person narrated the incident. But there are narrations talking of how Buddha attain enlightenment, his throwing of food in the river Nairanja to see whether it moved upstream or downstream, what did he do to attain enlightenment, etc. that were performed exclusively in private. This shows that Buddha was not trying to hide incidents from his life from getting known. Moreover, the entire region at least was following what this erstwhile prince of Sakya was up to since Buddha took the Parivraja. Remember, that was the period when Buddha had not even attained enlightenment. If records were not kept about Buddha’s life, it was because somebody wanted that they should not be kept. Later in these notes we will give two or three incidents to prove that Kasyapa’s intentions could be doubtful. The same is the case of naming Buddha’s teachings as a religion. Not once did Buddha say so. Also, we find that even at the time of the Congregation, Kasyapa mentions the word Dhamma meaning path, thus showing that till that time, at least, Buddha’s teachings had not been labeled as a separate religion. Is it not an irony that those very people who said that Buddha had carved no niche for himself named his religion as Buddhism but did not keep the records of the life of the propagator of their religion? There is one more point that proves our hypothesis. Let us study the circumstances in which Kasyapa accepted Buddha’s Dhamma. When we study the same for the five Parivrajakas, Yashas and several others, we find that they had the choice of accepting or denying Buddha’s Dhamma and yet accepted it on the basis of its truth. On the other hand, Kasyapa accepted Buddha’s Dhamma under circumstances where he had no other choice of continuing with his earlier path of giving fire sacrifice. Kasyapa was a fire worshipper and he was in fact proud of this fact. Conditions became such that the Naga king Muchalinda, who was influenced with Buddha’s teachings, was already troubling Kasyapa because of Kasyapa being a fire-worshipper when Buddha came to his ashram. Buddha desired to stay in his ashram for the night. Kasyapa raised several objections in spite of the fact that Buddha was persistently insisting. Kasyapa allowed Buddha finally to stay outside while he went off to sleep in spite of knowing that his guest (Buddha) might have been burnt up by Muchalinda. He came to look at his guest only the next morning. There he saw Muchalinda paying obeisance to Buddha. The man who had not dared to come out in the night, leaving his guest to the fate of Muchalinda, knew that it would be impossible for him to continue with his fire worship anymore. Thereafter, he invited Buddha to stay there and build an ashram. Another point! All Buddhists would agree that it was not possible for Kasyapa to gain salvation through fire-worship. The very fact that Kasyapa accepted Buddha’s Dhamma shows that he confessed that he was on the wrong. Had he achieved salvation why would he have converted? Yet B.R. Ambedkar writes: “The fame of Uruvella Kasyapa had spread far and wide. He was known to have obtained mukti (salvation) while alive. People from far away places came to his ashram which was located on the banks of the river Falgu.” This incident reveals that Kasyapa’s religiosity was suspect even when he was a fire worshipper. The word had been spread that he had attained salvation and he didn’t deny it even when people came to visit his ashram. Does it not show the cunningness, shrewdness and on top of it disrespect for religion on part of Kasyapa, who was taking help of a lie to achieve fame. Moreover, religiosity had not given him courage and steadfastness. If he was on true path, why was he afraid of Muchalinda? Why did he convert? It appears that Kasyapa used all his time-tested tactics to gain a position of respect in Buddha’s camp. We will see later that Kasyapa had a following that showed no respect to Buddha, not to speak of his teachings. The simple Bhikkus might not have seen behind the plan. But the Buddha knew and that is why he kept on insisting till his last breath that Dhamma itself is sufficient. Unfortunately, Kasyapa and some more of his type didn’t allow this to happen. यदि बुद्ध का देहांत होते ही उनके मानने वालों ने बुद्ध की शिक्षा को भुला दिया तो इसमें बुद्ध का क्या दोष? पुराण में राम के वंशजों का उल्लेख है। राम की औलाद में अच्छे व्यक्ति भी हुए तो डाकू और मनुष्य मास खाने वाले भी हुए। करीब 30 पुश्तों बात लिखा है कि अमुक पुत्र महाभारत के युद्ध में था और कृष्ण से लड़ते हुए मारा गया। यदि राम के वंशजों में आदमखोर व्यक्ति पैदा हो जाएं तो इसमें राम की शिक्षा का क्या दोष। जो अवतार कृष्ण से लड़ते हुए मारा गया, उससे अधिक घृणित व्यक्ति कौन होगा? यदि ऐसा व्यक्ति राम का वंशज है तो क्या आप राम की शिक्षा को दोष देंगें। आप मानते हैं कि वेद आत्मा को ब्रहमविद्या सिखाने आए थे जिसका उद्देश्य आत्मा को परमात्मा तक ले जाना अर्थात मोक्ष प्राप्ति था। जिन आत्माओं ने वेद की शिक्षा को कुबूल किया उन्हें मोक्ष प्राप्ति हो गई। परन्तु आज 100 करोड़ हिन्दू भारत वर्ष में हैं, वह हैं इससे साबित होता है कि उनकी आत्मा अभी भी मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकी। यदि वेद आने के 5000 वर्ष बाद भी 100 करोड़ हिन्दुओं की आत्मा मोक्ष नहीं प्राप्त कर सकी तो क्या इसके लिए आप वेदों को दोष देंगे? यदि आप की मानें तो बस वेद आए और तमाम आत्माओं को मोक्ष प्राप्त कर लेना था। पर ऐसा नहीं है। आप केवल दूसरे धर्मों का तिरस्कार करने में यकीन रखते हैं। आप का सत्य मार्ग से क्या सम्बंध। हकीकत तो यह है कि 300-400 वर्ष बाद नहीं, पैगम्बर मौहम्मद की आंख बंद होते ही मुसलमान उनके पथ से भटक गए। जैसे बुद्ध का देहांत आनंद की गोद में सिर रखकर हुआ था वैसे ही पैगम्बर मौहम्मद का देहांत अली की गोद में सिर रखकर हुआ था जिन्हें वह अपना उत्तराधिकारी बता चुके थे। स्वयं पैगम्बर मौहम्मद के कथन के अनुसार अली भी उस नूर से थे जो सब से पहले बनाया गया था। अर्थात अली देवता थे जिन्हें पैगम्बर मौहम्मद के बाद गुरू के रूप में माना जाना था। पर अली पैगम्बर मौहम्मद को दफन भी नहीं कर पाए थे कि मुसलमानों ने उत्तराधिकारी चुन लिया वैसे ही जैसे बुद्ध के अनुयायियों ने आनंद के स्थान पर कश्यप को उत्तराधिकारी चुना था। उसके बाद जो हुआ वह सब के सामने है। मुसलमान फौजें तलवार लेकर चारों ओर हमले करने लगीं। दौलत और ऐश-ओ-आराम में जिन्दगी लौट आई। यहां तक कि मंदिरों को जहां ईश्वर की आराधना होती थी उन्हें भी नहीं छोड़ा गया। मुसलमानों को लड़ाई पर तैयार करने के लिए हर किसी पर काफिर का लेबल लगाया गया। ब्लात्कार और हिंसा आम हो गई। परन्तु जब आप यह सब कहते हैं तो आपको यह भी पता होना चाहिए था कि जिन देवताओं को परमात्मा के अहलेबैत अर्थात घर के लोग कहकर पैगम्बर मौहम्मद पहचनवा गए थे मुसलमानों ने उनके गले में रस्सी बांध कर खींचा, देवी के घर के द्वार पर आग लगा दी, पैगम्बर मौहम्मद द्वारा घोषित उत्तराधिकारी अली को मस्जिद में तलवार से शहीद किया, करीब 70 वर्ष तक तमाम मुस्लिम जगत के हर मीनार से हर जुमे की नमाज में अली को बुरा भला कहा जाता था और अली के पुत्र हुसैन को जो दरअस्ल अग्निदेव हैं जब वह मानव शरीर में हुसैन के नाम से पैदा हुए, उन्हें भूखा प्यासा बाल बच्चों समेत कत्ल कर दिया। यह सब गुनाह मुसलमानों ने ही तो किए। यदि मुसलमान पैगम्बर मौहम्मद की शिक्षा पर चल रहे होते तो उनकी ही पुत्री, भाई, नवासे और तमाम घर वालों को शहीद क्यों करते और कैद में क्यों रखते? यह न समझ पाने के कारण आम लोग समझते हैं कि इस्लाम की शिक्षा थी जिसके अनुसार सब ओर हमले हो रहे थे, परन्तु ऐसा नहीं था। यह वह मुसलमान थे जो इस्लाम की शिक्षा का खुलेआम मजाक उड़ाते थे परन्तु उन्हें अपने को मुसलमान कहने से लाभ मिलता था इसलिए ऐसा कहते थे। ऐसे ही जैसे आज मंदिर निमार्ण का नारा लगाने से लाभ मिलता है परन्तु मंदिर निमार्ण की खातिर आप जो कुछ करते हैं वह क्हीं से भी वेद या गीता की शिक्षा के अनुरूप नहीं है। आप कह रहे हैं कि ईश्वर और अल्लाह एक कैसे हो सकते हैं? मैं तो सिद्ध कर रहा हूं कि एक हैं। और एक ही शिक्षा है जो कुरान और वेदों में दी गई है। पर आप मानना नहीं चाहते तो क्या किया जाए। चलिए मान लें कि ईश्वर और अल्लाह अलग अलग हैं। यह भी मान लें कि ईश्वर अधिक ताकतवर है और अल्लाह कम। यदि ऐसा है तो आप क्यों मुसलमानों को बुरा भला कह रहे हैं। ईश्वर उनका विनाश करना चाहेगा तो करेगा। अल्लाह कम ताकतवर सही पर कहीं तो होगा। मुझे वह जगह बताईए ताकि मैं अपने हिन्दु मित्रों को वहां जाने से रोकूं। ऐसा न हो कि क्हीं मुसलमानों का अल्लाह अपने इलाके में हिन्दुओं को कोई नुकसान पहुंचा दे। या मोक्ष के पथ से हटा कर उन्हें अपनी जन्नत या जहन्नुम में डाल दे। आप शायद क्हें कि अल्लाह कुछ है ही नहीं, जो कुछ है वह बस ईश्वर है। चलिए यह भी माने लेते हैं। पर यदि मुसलमान कहें कि यदि आप एक निराकार सर्वव्यापी सर्वज्ञ ईश्वर में विश्वास रखते हैं तो वही हमारा अल्लाह है तो उन्हें कहने दीजिए। ईश्वर चाहेगा तो उन्हें सजा देगा, चाहेगा तो उन्हें पुरस्कृत करेगा। आप या पंडित महेंद्र पाल आर्य जी उन्हें तिरस्कृत करें यह क्हां से साबित है। हुजूर, अकल की बात करें। ऐसी बेतुकी बातें करेंगे तो अपने ही मित्रों का समर्थन खो देंगे। फिर आप पूछ रहे हैं मोहित जी कि हमारी तीन किताबों में क्हां लिखा है कि कयामत पहले आ चुकी है। सब से पहले तो मैं बता दूं कि वेद भी हमारी ही किताब है। यदि उसमें लिखा है तो हमारे लिए काफी है। यह ईश्वर के इस दिन की 994वीं सृष्टि है जिसका मतलब कि इससे पहले 993 बार कयामत आ चुकी है। कुरान में फरिश्ते पूछते हैं कि क्या उसे पैदा करेगा जो जमीन पर खूंरेजी करेगा। इससे भी साबित है कि इस मनुष्य से पहले भी जीवन था। जिन 7 मनु ऋषि की औलाद आप आज तमाम इंसानों को बता रहे हैं वह दरअस्ल 14 मनु हैं। इन्हें क्हीं 14 और क्हीं 7 क्हा गया है। जानते हैं ऐसा क्यों? क्योंकि यह 14 हैं पर इनके नाम 7 हैं। यह तो हम भी मानते हैं। हम इन्हीं 14 मनु को 14 अहलेबैत अर्थात परमात्मा के घर के 14 लोग कह कर बुलाते हैं। हम भी तमाम सृष्टि में इनका रोल मानते हैं। अन्तर क्हां है? यही 14 मनु थे जो पहले मानव की पैदाईश से पहले से थे, यही देवता अर्थात नूर के रूप में मानव को सीधे मार्ग पर लाने की कोशिश में लगे रहे और एक समय आने पर यह 14 मानव शरीर में स्वयं आ गए ताकि परमात्मा की ओर से आए गुरू के रूप में सीधे मार्ग की शिक्षा को प्रदर्शित करें। जब यह छिपी हुई वीरान जगह, जैसा कि वेदों ने क्हा है, वहां पर मानव अवतार में आए तो वहां भी इन 14 के सात ही नाम थेः- मौहम्मद, अली, फातमा, हसन, हुसैन, अली, मौहम्मद, जाफर, मूसा, अली, मौहम्मद, अली, हसन, मौहम्मद। इनमें का आखिरी मौहम्मद ही कलकी अवतार होगा, जिसकी भविष्यवाणी भी वेदों से लेकर पुराण ने कर रखी है। आप सही कह रहे हैं कि इंद्र कोई शरीर नहीं रखते बल्कि नूर हैं। मैं भी तो यही मान रहा हूं। परन्तु इसके बावजूद हिन्दुओं ने इंद्र को अनगिनत बालाओं के साथ रिश्ता बनाते दिखा दिया। आज आप सीरियल में इंद्र को दिखाते हैं तो शरीर के साथ। आप आसमान पर इंद्र को दिखाते हैं तो अपसराओं के साथ। हम भी मानते हैं कि इंद्र केवल नूर थे जब वेद आए। परन्तु वेदों ने ही भविष्यवाणी की कि एक समय इंद्र और दूसरे देवता एक के बाद एक मानव शरीर में अवतरित होंगे। क्योंकि वेदों में यह भविष्यवाणी है इसलिए हम इसे सत्य मानते हैं। जब यह आए तो इन्होंने जो मार्ग दिखाया वही परमात्मा का सही मार्ग है। बुद्धि का प्रयोग करने पर ही यह सत्य मार्ग प्रदर्शित हुआ है। अब समय है कि आप वेदों में देखें कि क्या इंद्र के मानवरूप में धरती पर आने की भविष्यवाणी है कि नहीं और क्या उस समय के हिन्दू देवताओं के धरती पर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे कि नहीं? यदि नहीं मिले तो मुझे बताईए, मैं आपको वेदों में ही दिखला दूंगा। मोहित जी आप स्वयं ही अलग अलग बातें करते हो। आप कहते हो हिन्दुओं के लिए परमात्मा ही सब कुछ है। जब तक यह आत्मा परमात्मा से नहीं मिलती धरती पर आते ही रहोगे। मैं भी इसे मानता हूं। मैं आप को कौन सा कुरान मानने को कह रहा हूं। मैं भी तो आपको वेद और गीता की शिक्षा ही मानने को कह रहा हूं। यदि हिन्दुओं ने वेद की शिक्षा को सही से समझ लिया होता तो क्या आज कोई भी हिन्दू होता। सब मोक्ष प्राप्त कर चुके होते। नहीं समझा तब तो आज तक हैं। मैं समझा रहा हूं कि वेदों में क्या है। यदि यह समझ पाना इतना आसान होता तो सब ही इस मार्ग पर आ चुके होते। मैं ने गीता के चैथे अध्याय से जो छंद लिखे हैं उन्हें फिर से पढि़ए। कहिए तो मैं वेद से आप को दो दर्जन उदाहरण दे दूं कि देवता आने को हैं ताकि हमारा मार्गदर्शन करें। आप को समझना होगा। गीता ईश्वर के मार्ग को प्रदर्शित करने वाली किताब है। परन्तु इसी किताब में है कि ‘मारो या मर जाओ, कोई अन्तर नहीं।’ तो क्या इसमें duality है? नहीं! गीता ऐसा करे तो आप सही मानें और यदि इसी प्रकार की आयतें कुरान में आएं तो आप क्हें कि कुरान शांति का संदेश कैसे दे सकती है? मनुस्मृति में कुछ लोगों के लिए आया कि इन्हें जहां पाओ मार डालो तो आप को कोई आपत्ति नहीं और आप फिर भी कहते रहें कि यह पुस्तकें शांति का संदेशा देती हैं। कुरान समझना है तो 14 अहलेबैत की शिक्षा की रौशनी में पढ़ें। तब आपको सच्चा ज्ञान प्राप्त होगा। आप सही कह रहे हैं कि वेद पढ़ो और गीता पढ़ो। मैं भी ऐसा ही कर रहा हूं। पर मैं इन किताबों को इसलिए नहीं पढ़ रहा कि मुझे इनसे प्रेम है। मैं इसलिए पढ़ रहा हूं कि यह किताबें मुझे परमात्मा की ओर से आई किताबें प्रतीत हो रही हैं। मैं इनमें अपने मनघड़ंत मायनी पहनाने की कोशिश नहीं करता। न ही पहले से बने विचारों के आधार पर इन्हें सबसे बेहतरीन मानता हूं। अकल की कसौटी पर देखता हूं कि यह ईश्वरीय किताबें क्या संदेश दे रही हैं। और जो संदेश देती दिखती हैं उसे आंख बंद करके मान लेता हूं। क्योंकि यह ईश्वरीय संदेश है। जब ईश्वर को अपने मस्तिष्क और अपनी इंद्रियों का हाकिम मान लिया तो फिर मैं क्यों चूं चरा करूं। ऐसा ही आप भी करिए यदि अगले जन्म में फिर इसी पृथ्वी पर विचरने से बचना चाहते हैं। वेदिक मार्ग सब से अच्छा मार्ग है। यह बताता है कि ईश्वर तक कैसे पहुंचे। आप कह रहे हैं कि परमात्मा और देवताओं में कोई सम्बंध नहीं। गीता में परमात्मा ही कहता है कि जो देवताओं को अर्पित किए बिना खाए वह चोर है। अर्थात परमात्मा ही मानता है कि देवता हम से खुश हो कर हमें अन्न आदि प्रदान करते हैं। गीता में एक जगह परमात्मा यह भी कहता है कि इनको अर्पित किया अर्थात मुझे अर्पित किया। मैं ने चैथे चैप्टर से जो उदाहरण दिया है उसमें भी परमात्मा ही कहता है कि इन beings के मार्ग से ही परमात्मा मिलता है। क्या मैं जो कह साबित कर रहा हूं वह निराधार है? जी नहीं, सच तो यह है कि आप जो कुछ मान रहे हैं वह निराधार है। मैं अकल से सत्य मार्ग को समझने की चेष्टा में हूं। मैं क्या करूं यदि मुझे वेद में ही मौहम्मद दिखलाई दें, एक जगह नहीं, दो जगह नहीं, बल्कि अनेक जगह, ऐस में आप क्या करेंगे? अब रही पशु बलि की बात? यह बड़ा विषय है। सब से पहले यह मानना है कि अल्लाह है कि नहीं, तब इस पर चर्चा कीजिए कि उसने मास खाने के बारे में क्या क्हा है। गंगा नदी के आसपास रहकर आप जो कुछ चाहे बोलिए। पर कश्मीर के ब्रहमणों या उत्तरी पूर्व के हिन्दुओं से न कहिएगा कि मास न खाओ। क्योंकि वह क्हेंगे कि मास न खाएं तो क्या खाएं? न ही रेगिस्तान में या नौका पर कई कई माह की यात्रा करने वाले से कहिएगा कि मास न खाओ। उत्तरी पूर्व छोडि़ए, कोलकता या दूसरे तटीय इलाकों में रहने वालों से कहिए कि मछली खाना छोड़ दें। इस्लाम तमाम मानवता को एक मार्ग प्रदर्शित करता है। यह पहाड़ों से लेकर रेगिस्तान और गंगा नदी के पास रहने वाले, सभी के लिए मार्ग प्रदर्शित करता है। इसलिए इस्लाम ने मास खाने को मना नहीं किया पर यह क्हा कि ईश्वर का नाम लेकर पशु बलि जाएज है। जानते हैं क्यों? क्योंकि ईश्वर का नाम लेकर पशु बलि करने से उस जानवर को पशु योनि से छुटकारा मिल जाता है। ईश्वर तो उस पशु में आत्मा पर उपकार करना चाहता है। परन्तु मानव का स्थान पशु से बहुत बड़ा है। इसलिए इस्लाम ने क्हा कि यदि गौ हत्या से हिन्दुओं के दिलों को ठेस पहुंचती है तो मुसलमानों पर हिन्दुओं के साथ रहते हुए गौ हत्या करना हराम है। साथ ही हजरत अली ने यह भी कह दिया कि अपने पेट को जानवरों का कब्रिस्तान न बनाओ। हजरत अली या पैगम्बर मौहम्मद आम तौर पर खजूर, जौ की रोटी और इसी प्रकार का भोजन करते थे। पर ऐसा नहीं है कि उन्होंने मास का सेवन नहीं किया या किसी बड़े उत्सव के मौके पर मास को नहीं पड़ोसा। अब के लिए बस इतना ही। एक बार फिर विनती है! अकल के बिना धर्म समझ नहीं आने वाला। परमात्मा तक पहुंचने का मार्ग खोजना है तो अकल के बिना नहीं खोज सकते।
Posted on: Tue, 10 Sep 2013 17:15:20 +0000

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